कंकाल-अध्याय -७९
दोनो मंगल की कोठरी की ओर चलीं।
मंगल के गले के नीचे वह यंत्र गड़ रहा था। उसने तकिया से खींचकर उसे बाहर किया। मंगल ने देखा कि वह उसी का पुराना यंत्र है। वह आश्चर्य से पसीने-पसीने हो गया। दीप के आलोक में उसे वह देख ही रहा था कि सरला भीतर आयी। सरला को बिना देखे ही अपने कुतूहल में उसने प्रश्न किया, 'यह मेरा यंत्र इतने दिनों पर कौन लाकर पहना गया है, आश्चर्य है!'
सरला ने उत्कण्ठा से पूछा, 'तुम्हारा यंत्र कैसा है बेटा! यह तो मैं एक साधू से लायी हूँ।'
मंगल ने सरल आँखों से उसकी ओर देखकर कहा, 'माँ जी, यह मेरा ही यंत्र है, मैं इसे बाल्यकाल में पहना करता था। जब यह खो गया, तभी से दुःख पा रहा हूँ। आश्चर्य है, इतने दिनों पर यह आपको कैसे मिल गया?'
सरला के धैर्य का बाँध टूट पड़ा। उसने यंत्र को हाथ में लेकर देखा-वही त्रिकोण यंत्र। वह चिल्ला उठी, 'मेरे खोये हुए निधि! मेरे लाल! यह दिन देखना किस पुण्य का फल है मेरे भगवान!'
मंगल तो आश्चर्य चकित था। सब साहस बटोरकर उसने कहा, 'तो क्या सचमुच तुम्हीं मेरी माँ हो।'
तीनों के आनन्दाश्रु बाँध तोड़कर बहने लगे।
सरला ने गाला के सिर पर हाथ फेरते हुए कहा, 'बेटी! तेरे भाग्य से आज मुझे मेरा खोया हुआ धन मिल गया!'
गाला गड़ी जा रही थी।
मंगल एक आनन्दप्रद कुतूहल से पुलकित हो उठा। उसने सरला के पैर पकड़कर कहा, 'मुझे तुमने क्यों छोड़ दिया था माँ
उसकी भावनाओं की सीमा न थी। कभी वह जीवन-भर के हिसाब को बराबर हुआ समझता, कभी उसे भान होता कि आज के संसार में मेरा जीवन प्रारम्भ हुआ है।
सरला ने कहा, 'मैं कितनी आशा में थी, यह तुम क्या जानोगे। तुमने तो अपनी माता के जीवित रहने की कल्पना भी न की होगी। पर भगवान की दया पर मेरा विश्वास था और उसने मेरी लाज रख ली।'
गाला भी उस हर्ष से वंचित न रही। उसने भी बहुत दिनों बाद अपनी हँसी को लौटाया। भण्डार में बैठी हुई नन्दो ने भी इस सम्वाद को सुना, वह चुपचाप रही। घण्टी भी स्तब्ध होकर अपनी माता के साथ उसके काम में हाथ बँटाने लगी।
आलोक-प्रार्थिनी अपने कुटीर में दीपक बुझाकर बैठी रही। उसे आशा थी कि वातायन और द्वारों से राशि-राशि प्रभात का धवल आनन्द उसके प्रकोष्ठ में भर जायेगा; पर जब समय आया, किरणें फूटी, तब उसने अपने वातायनों, झरोखे और द्वारों को रुद्ध कर दिया। आँखें भी बन्द कर लीं। आलोक कहाँ से आये। वह चुपचाप पड़ी थी। उसके जीवन की अनन्त रजनी उसके चारों ओर घिरी थी।